ऐच् आर डायरीज़
लेखक - हरमिंदर सिंह
पब्लिशर - ओपन क्रेयॉन्स
पृष्ठ - १८१
प्रथम प्रभाव -
"कुछ नौजवान जिन्होनें नयी दुनिया में कदम रखा, उलझ गए दौड़ भाग के पाटों में. ज़िन्दगी की पेचीदगियों को उन्होनें अपनी तरह से हल करने की कोशिश की. अनेक रोचक मोड़ आते गए. वे हँसे, रोये,घबराये, लेकिन रुके नहीं। आखिर में उन्होनें पाया की नौकरी करना कोई बच्चों का खेल नहीं. उनकी ज़िन्दगी का एक हिस्सा उनसे हर बार सवाल करता है की यह दौड़ यूँ ही क्यों चल रही है? हमें क्यों लगता है की हम एक जगह बंधे हुए हैं? क्या यह हमारी नियति है?"
सूट बूट में ऑफिस एग्जीक्यूटिव को पुस्तक के कवर पे देख समझ आ रहा था की कहानी कारपोरेट जग से प्रभावित है. किन्तु मेरी उत्सुकता तब बढ़ गयी जब कवर पे पढ़ा "मानव संसाधन विभाग की अनकही।" चाहे आपने किसी भी विभाग में काम किया हो, परंतु मानव संसाधन विभाग से कोई अछूता नहीं रहा. अनुभव कभी मीठे कभी कड़वे अवश्य रहते हैं, किन्तु इस विभाग के अंदर का सच जानने को कोई भी व्यक्ति उत्सुक होगा।
मेरी नज़र से
कहानी की शुरुआत में ही ये अनुभूति हो जाती है की ये हम में से किसी की भी कथा हो सकती है. आफिस का वह पहला दिन, वो झिझक, वो उत्सुकता - ये ऐसे अनुभव होते हैं जो आजीवन आपकी स्मृतियों में अपनी छाप बनाये रखते हैं. कुछ ऐसा ही अनुभव रहता है कथानक का, जिन्होंने अपने अनुभव इस कहानी के माध्यम से व्यक्त किये हैं.
कहानी के शुरुआत का भाग और रोचक हो सकता था. जहां कथानक के पहले दिन का अनुभव कुछ फीका सा रहता है, वहीँ पाठक भी कहानी के साथ चलने का प्रयास करता है. उम्मीदों की गठरी बांधे जब कथानक अपने दफ्तर में दाखिल होता है, तो वहां का परिवेश उसे किसी अनजान शहर में होने की अनुभूति दिलाता है. कहानी की धीमी गति की तरह ही कस्थानक का उबाऊ कार्यक्तिक जीवसं भी गति पकड़ता है. जो चेहरे उसे अनजान और खडूस से प्रतीत होते थे, धीरे धीरे उन्ही के बीच उसका दिन कैसे बीत जाता है, उसे पता नहीं चलता. नौकरी करना बच्चों का कआ खेल नहीं, और कथानक बार बार ये सन्देश पाठकों तक पहुंचाता है.
मानव संसाधन विभाग मेंकथानक का अनुभव किसी आम कर्मचारी की भांति ही रहता है. जहाँ एक तरफ उन्हें विजय और तारा जैसे सच्चे मित्र मिलते हैं, वहीँ विभाग में कई रोचक, कई टेढ़े पात्र भी टकराते हैं. खडूस बॉस, चाटुकार कर्मचारी, और कुछ ऐसे लोग जो ऑफिस के गरम माहौल को अपनी हंसी मज़ाक से हल्का फुल्का रखते हैं. कहानी में रोज़ मर्रा का कार्यकारी जीवन झलकता है. रोज़ के हलके फुल्के किस्से, चाय पे चर्चा,मित्रों के साथ घूमना,चुगलियां,ठहाके और मौज मस्ती पाठक की रूचि बढ़ाते हैं. यदि आप कार्यारित हैं, तो आप अपने कार्यकारिक जीवन की झलकियां कहानी में देख पाएंगे. ऑफिस के वो छोटे छोटे किस्से, पिकनिक, गहमा गहमी, डेड्लाइंस - लेखक ने मनो अपने सारे कार्यकारिक अनुभव पुस्तक में उड़ेल दिए हों.
जैसे जैसे कहानी गति पकड़ती है, पाठक एक रोचक लेखन शैली देखना चाहते हैं. किन्तु ऐसा लगता है की लेखक ने अपने चर्चित ब्लॉग वृद्धग्राम की तरह ही लेखन शैली संजीदा और धीमी रखी है.
कहानी में जहाँ हंसी के पल हैं, वहीँ रुला देने वाले भाग भी हैं. अपने साथ कार्यारित कर्मचारियों से हमारा एक पारिवारिक नाता सा बांध जाता है. सब सुख और दुःख फिर साझे प्रतीत होते हैं. तारा की बीमारी और देहांत कथा के कुछ ऐसे ही भाग हैं. अंत बेहद भावुक है. कथानक के समक्ष कई सवाल हैं जो पाठक के मन में भी घर बना लेते हैं. नौकरी का असली उद्देश्य क्या है? कार्यकारी जीवन में संतोष किसे कहते हैं? ये ऐसे सवाल हैं जो कथानक के ही नहीं, अपितु हर पाठक के मनन में आएंगे.
परंतु एक सवाल मेरे मन में प्रायः उथल पुथल मचा रहा था. ये कहानी मानव संसाधन की अनदेखी कहाँ से प्रतीत होती है? ये तो एक तरह से कथानक के कार्यकारी अनुभवों की एक दैन्द्विनी सी जान पड़ती है. शायद इसलिए शुरू के कुछ पृष्ठ पाठक का ध्यान बाँधने को जूझते हैं.
यदि आप मानव संसाधन का जीवन जानने के उत्सुक हैं तो शायद निराश हाथ लगे. किन्तु यदि आप इसे एक साधारण कॉर्पोरेट जीवन के अनुभवों से भरी एक कथा के रूप में पढ़ेंगे तो पुस्तक का मज़ा ले पाएंगे.
ये समीक्षा ब्लोगअड्डा के लिए है.
लेखक - हरमिंदर सिंह
पब्लिशर - ओपन क्रेयॉन्स
पृष्ठ - १८१
प्रथम प्रभाव -
"कुछ नौजवान जिन्होनें नयी दुनिया में कदम रखा, उलझ गए दौड़ भाग के पाटों में. ज़िन्दगी की पेचीदगियों को उन्होनें अपनी तरह से हल करने की कोशिश की. अनेक रोचक मोड़ आते गए. वे हँसे, रोये,घबराये, लेकिन रुके नहीं। आखिर में उन्होनें पाया की नौकरी करना कोई बच्चों का खेल नहीं. उनकी ज़िन्दगी का एक हिस्सा उनसे हर बार सवाल करता है की यह दौड़ यूँ ही क्यों चल रही है? हमें क्यों लगता है की हम एक जगह बंधे हुए हैं? क्या यह हमारी नियति है?"
सूट बूट में ऑफिस एग्जीक्यूटिव को पुस्तक के कवर पे देख समझ आ रहा था की कहानी कारपोरेट जग से प्रभावित है. किन्तु मेरी उत्सुकता तब बढ़ गयी जब कवर पे पढ़ा "मानव संसाधन विभाग की अनकही।" चाहे आपने किसी भी विभाग में काम किया हो, परंतु मानव संसाधन विभाग से कोई अछूता नहीं रहा. अनुभव कभी मीठे कभी कड़वे अवश्य रहते हैं, किन्तु इस विभाग के अंदर का सच जानने को कोई भी व्यक्ति उत्सुक होगा।
मेरी नज़र से
कहानी की शुरुआत में ही ये अनुभूति हो जाती है की ये हम में से किसी की भी कथा हो सकती है. आफिस का वह पहला दिन, वो झिझक, वो उत्सुकता - ये ऐसे अनुभव होते हैं जो आजीवन आपकी स्मृतियों में अपनी छाप बनाये रखते हैं. कुछ ऐसा ही अनुभव रहता है कथानक का, जिन्होंने अपने अनुभव इस कहानी के माध्यम से व्यक्त किये हैं.
कहानी के शुरुआत का भाग और रोचक हो सकता था. जहां कथानक के पहले दिन का अनुभव कुछ फीका सा रहता है, वहीँ पाठक भी कहानी के साथ चलने का प्रयास करता है. उम्मीदों की गठरी बांधे जब कथानक अपने दफ्तर में दाखिल होता है, तो वहां का परिवेश उसे किसी अनजान शहर में होने की अनुभूति दिलाता है. कहानी की धीमी गति की तरह ही कस्थानक का उबाऊ कार्यक्तिक जीवसं भी गति पकड़ता है. जो चेहरे उसे अनजान और खडूस से प्रतीत होते थे, धीरे धीरे उन्ही के बीच उसका दिन कैसे बीत जाता है, उसे पता नहीं चलता. नौकरी करना बच्चों का कआ खेल नहीं, और कथानक बार बार ये सन्देश पाठकों तक पहुंचाता है.
मानव संसाधन विभाग मेंकथानक का अनुभव किसी आम कर्मचारी की भांति ही रहता है. जहाँ एक तरफ उन्हें विजय और तारा जैसे सच्चे मित्र मिलते हैं, वहीँ विभाग में कई रोचक, कई टेढ़े पात्र भी टकराते हैं. खडूस बॉस, चाटुकार कर्मचारी, और कुछ ऐसे लोग जो ऑफिस के गरम माहौल को अपनी हंसी मज़ाक से हल्का फुल्का रखते हैं. कहानी में रोज़ मर्रा का कार्यकारी जीवन झलकता है. रोज़ के हलके फुल्के किस्से, चाय पे चर्चा,मित्रों के साथ घूमना,चुगलियां,ठहाके और मौज मस्ती पाठक की रूचि बढ़ाते हैं. यदि आप कार्यारित हैं, तो आप अपने कार्यकारिक जीवन की झलकियां कहानी में देख पाएंगे. ऑफिस के वो छोटे छोटे किस्से, पिकनिक, गहमा गहमी, डेड्लाइंस - लेखक ने मनो अपने सारे कार्यकारिक अनुभव पुस्तक में उड़ेल दिए हों.
जैसे जैसे कहानी गति पकड़ती है, पाठक एक रोचक लेखन शैली देखना चाहते हैं. किन्तु ऐसा लगता है की लेखक ने अपने चर्चित ब्लॉग वृद्धग्राम की तरह ही लेखन शैली संजीदा और धीमी रखी है.
कहानी में जहाँ हंसी के पल हैं, वहीँ रुला देने वाले भाग भी हैं. अपने साथ कार्यारित कर्मचारियों से हमारा एक पारिवारिक नाता सा बांध जाता है. सब सुख और दुःख फिर साझे प्रतीत होते हैं. तारा की बीमारी और देहांत कथा के कुछ ऐसे ही भाग हैं. अंत बेहद भावुक है. कथानक के समक्ष कई सवाल हैं जो पाठक के मन में भी घर बना लेते हैं. नौकरी का असली उद्देश्य क्या है? कार्यकारी जीवन में संतोष किसे कहते हैं? ये ऐसे सवाल हैं जो कथानक के ही नहीं, अपितु हर पाठक के मनन में आएंगे.
परंतु एक सवाल मेरे मन में प्रायः उथल पुथल मचा रहा था. ये कहानी मानव संसाधन की अनदेखी कहाँ से प्रतीत होती है? ये तो एक तरह से कथानक के कार्यकारी अनुभवों की एक दैन्द्विनी सी जान पड़ती है. शायद इसलिए शुरू के कुछ पृष्ठ पाठक का ध्यान बाँधने को जूझते हैं.
यदि आप मानव संसाधन का जीवन जानने के उत्सुक हैं तो शायद निराश हाथ लगे. किन्तु यदि आप इसे एक साधारण कॉर्पोरेट जीवन के अनुभवों से भरी एक कथा के रूप में पढ़ेंगे तो पुस्तक का मज़ा ले पाएंगे.
ये समीक्षा ब्लोगअड्डा के लिए है.